रूडकी में दो वक्त की रोटी के लिए पांच साल की मासूम अपनी जान जोखिम में डालने को मजबूर हैं. जिस उम्र में बच्ची को स्कूल के आंगन में पढ़ना और खेलना चाहिए था, उस उम्र में ये बच्ची सडकों पर करतब दिखा रही है.. इस उम्र के पड़ाव में बच्चे जमीन पर चलने में लड़खड़ा जाते हैं और ये मासूम बच्ची बिना डरे रस्से पर चलकर लोगों को तमाशा दिखा रही है..और लोगों का हुजूम बच्ची के करतब पर तालिया बजा रहा है.. इन्ही सडकों से बड़े-बड़े समाजसेवी और प्रशासन के नुमाइंदे गुजरते हैं लेकिन कोई भी इन बच्चों को इस मुसीबत से निकालने की जहमत तक नहीं उठाता. सडकों पर दम तोड़ता बचपन देश का भविष्य कैसे बनेगा, ये सवाल किसी के भी गले से नीचे नहीं उतर रहा है..

बच्ची की मजबूरी का तमाशा देखने सड़क पर उमड़ी भीड़

पांच साल की बच्ची की मजबूरी का तमाशा देखने के लिए सड़क पर भीड़ देखिए। पेट के खातिर जाम जोखिम में डालना भी देख लीजिए, ये बच्ची बचपन को दरकिनार कर पेट की आग बुझाने के लिए करतब दिखा रही है। रूडकी की सड़कों पर स्कूल जाने की उम्र में दो जून की रोटी की जुगत में बच्ची हमारे समाज से कई सवाल पूछ रही है.

जान जोखिम में डालकर रस्सी पर चलना इनकी जिंदगी का हिस्सा 

जान जोखिम में डालकर रस्सी पर चलना इनकी जिंदगी का हिस्सा बन गया है. चन्द रुपयों की खातिर जीवन को खतरे में डालकर मौत की राह पर चलता ये बचपन बताता है कि जिन्दगी कितनी सस्ती है. अपने और अपने परिवार के लिए दो वक़्त की रोटी जुटाने के लिए पांच साल की एक मासूम बच्ची रोजाना रस्सी पर चल कर अपनी जान जोखिम में डाल कर लोगों को तमाशा दिखाती है लेकिन कोई भी यह जानने की कोशिश नहीं करता कि आखिरकार यह बच्ची ऐसा क्यों कर रही है.

बाल श्रम विभाग की नजर भी इस और नहीं जाती

जिन सडकों पर ये बच्ची तमाशा दिखा रही है. उन्हीं सड़कों पर सरकार के नुमाइंदों से लेकर प्रशासन के अधिकारी भी गुजरते हैं लेकिन कोई भी इन बच्चों की मासूमियत पर रहम नहीं खाता बल्कि आँखें फेरकर चलते बनते हैं.. वहीं प्रदेश में गठित बाल श्रम विभाग की नजर भी इस और नहीं जाती.. सरकारों की नीतिया भी इन्ही सडको पर दम तोड़ती देखी जाती है. केंद्र सरकार से लेकर प्रदेश सरकार बच्चों का भविष्य सुधारने के लिए विभिन्न योजनाएं बनाती है और करोड़ों खर्च करती है लेकिन क्या इन योजनाओं का हक़ उन्हें मिल रहा है जिन्हें मिलना चाहिए था ये तस्वीर उन योजनाओं पर भी प्रश्न चिन्ह लगाती है.

क्योंकि पापी पेट का सवाल है

देश को डिजिटल बनाने के दावे जरा देख लीजिए.. पेट की भूख मिटाने के लिए मध्य प्रदेश के रहने वाले इस परिवार ने इस वक़्त रूडकी इलाके में अपनी झोपडी डाली हुई है.. और रोजाना यह परिवार अपने छोटे छोटे बच्चो सहित सडको पर निकल पढता है और कहीं भी जगह देख कर अपना जोखिम भरा खेल शुरू कर देते है, एक रस्से पर पांच साल की यह मासूम अलग अलग तरह के करतब दिखाती है कभी डंडा लेकर रस्से पर चलती है तो कभी पहिये के सहारे रस्से का खतरे वाला रास्ता पूरा करती है और लोगों की भीड़ उसके हैरतअंगेज स्टंट को देखकर दांतों तले उंगली दबा लेते हैं.. करतब दिखाने के बाद लोगों से यह मासूम अपने और अपने परिवार के लिए पैसे भी इकठ्ठा करती हैं. यह खेल एक या दो दिन का नहीं बल्कि प्रति दिन का है क्योंकि पापी पेट का सवाल है इसलिय यह मासूम अपनी जान को रोजाना जोखिम में डालती है.

ये मासूम बचपन कई तरह के सवाल खड़े करता है.. क्या इनका कोई भविष्य नहीं है. आखिर कब तक हमारे देश के बच्चों को रस्सी के सहारे भूख मिटाने के लिए जान जोखिम में डालनी पड़ेगी.. क्या सरकारों को दावे और वादे महज दिखावा होते हैं.. सवाल कई हैं लेकिन जवाब किसी के पास नहीं.

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