जोशीमठ एक बड़ी आपदा के मुहाने पर है। लोग रो रहें हैं, बेबस हैं, हताश हैं। भूधंसाव के चलते ये पौराणिक नगर अब खत्म होने को है। लेकिन इस बीच बड़ा सवाल ये है कि इस आपदा तक जोशीमठ पहुंचा कैसे? क्या इस मामले में प्रशासनिक लापरवाही और विकास का अंधा मॉडल अपनाना भी जिम्मेदार है?
दरअसल ये सभी को पता है कि जोशीमठ मलबे से बनी चट्टान पर स्थित है। जोशीमठ में निर्माण गतिविधियों को नियंत्रित रूप में ही चलाया जाना चाहिए था और ये प्रशासनिक अधिकारी अच्छी तरह से समझते थे लेकिन पिछले कुछ सालों में प्रशासनिक लापरवाही और सत्ता के गठजोड़ के साथ ही विकास की अंधी दौड़ ने जोशीमठ जैसे पौराणिक महत्व के नगर को खत्म होने की कगार पर ला खड़ा किया है।
जोशीमठ की वो नगर है जहां से आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित हिंदुओं के चार तीर्थों में से एक बद्रीनाथ धाम के लिए मार्ग जाता है। इसके साथ ही फूलों की घाटी और सिखों के तीर्थ स्थल हेमकुंड साहिब का भी ये अहम पड़ाव है।
यही नहीं चीन सीमा तक सेना की आवाजाही के लिए भी जोशीमठ बेहत महत्वपूर्ण है और इसका सामरिक महत्व है।
लेकिन पिछले कुछ सालों में जिस तरह से उत्तराखंड में विकास की अंधी दौड़ लगी है उससे जोशीमठ पर शहरीकरण का दबाव बढ़ता गया।
1960 से मिल रहे थे सबूत
वैज्ञानिकों को जोशीमठ में भूधंसाव के सबूत 1960 से मिलने लगे थे। वैज्ञानिकों को शोध के जरिए पता चल चुका था कि जोशीमठ अतीत में हुई बड़ी भूगर्भीय हलचल और भूस्खलन के बाद जमा मलबे के ऊपर बना है। 1960 में जब भूधंसाव की आहट मिली उसी समय लोगों की जान पर बन आई। 1976 में तत्कालीन उत्तर प्रदेश सरकार ने जोशीमठ में भूमि धंसने की वजह पता करने के लिए कमेटी गठित की। भूधंसाव की जांच के लिए पहली बार 1976 गढ़वाल के आयुक्त रहे एससी मिश्रा की अध्यक्षता में एक 18 सदस्यीय समिति गठित की गई थी। मिश्रा समिति ने अपनी रिपोर्ट में पुष्टि की थी कि जोशीमठ धीरे-धीरे धंस रहा है।
इसी मिश्रा कमेटी ने जोशीमठ को लेकर सुझाव दिए। जिसमें कहा गया कि क्षेत्र से खुदाई या विस्फोट के ज़रिये कोई भी शिलाखंड (बोल्डर) नहीं हटाया जाना चाहिए। इस लैंडस्लाइड ज़ोन से एक भी पेड़ नहीं काटे जाने चाहिए। जोशीमठ क्षेत्र के 5 किलोमीटर के दायरे में निर्माण सामग्री इकट्ठा करने पर पूरी तरह प्रतिबंध लगा देना चाहिए। किसी भी तरह के निर्माण कार्य के लिए उस जगह की स्थिरता की जांच जरूरी है। ढलानों पर किसी भी तरह की खुदाई नहीं की जानी चाहिए।

रैणी आपदा के बाद हालात बिगड़े
जोशीमठ को लेकर चिंताएं हमेशा बनी रहीं। सात फरवरी 2021 को रैणी गांव के पास हिमस्खलन हुआ और हजारों टन मलबा अलकनंदा नदी में आया तो फिर एक बार जोशीमठ के भविष्य को लेकर आशंकाएं मन में घिरने लगीं। दरअसल रैणी से जोशीमठ तक भूखंड एक ही है। ऐसे में रैणी में अगर आपदा आई तो उसका कुछ प्रभाव जोशीमठ पर भी पड़ा होगा।
पौड़ी के एचएनबी गढ़वाल विश्वविद्यालय में भू-विज्ञानी डॉ एसपी सती लगातार इस इलाके में होने वाली भूगर्भीय हलचलों को परखते रहें हैं। वो बताते हैं कि रैणी की आपदा के बाद समूचा जोशीमठ क्षेत्र अस्थिर हुआ है। अपने दो अन्य भू-विज्ञानी साथियों के साथ मिलकर डॉ. सती ने जोशीमठ का स्वतंत्र अध्ययन किया। वो अपने बयानों में बताते हैं कि, “हमने अपने अध्ययन में पाया कि पिछले साल 7 फरवरी की घटना के बाद जोशीमठ में धौलीगंगा और ऋषिगंगा के संगम से नीचे की तरफ तकरीबन 40 किलोमीटर दायरे में पुराने भूस्खलन केंद्र फिर से सक्रिय हो गए हैं। (ये नदियां आगे अलकनंदा में समाहित हो जाती हैं।) 2013 की केदारनाथ आपदा के बाद ऊर्गम घाटी में भी हमने पुराने भूस्खलन केंद्रों को दोबारा सक्रिय होते देखा था”।
हमारा अनुमान है कि अलकनंदा के बहाव के चलते जोशीमठ की पहाड़ियों की जड़ (Bottom of the slope) का लगातार कटाव हो रहा है और पूरी पहाड़ी नीचे की तरफ धंस रही है।

सात मंजिल के होटल और बेतहाशा आबादी
उत्तराखंड में पिछले कुछ सालों में धार्मिक पर्यटन बेहद तेजी से बढ़ा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी कई बार केदारनाथ की यात्रा की। हाल ही में वो बद्रीनाथ के दर्शन के लिए भी आए थे। उत्तराखंड में अपने भाषणों में वो देश दुनिया के लोगों के लिए उत्तराखंड के धार्मिक तीर्थों की यात्रा का आह्वान करते रहे। इसका असर भी हुआ पिछले कुछ सालों में उत्तराखंड में पर्यटकों की संख्या में बेतहाशा वृद्धि हुई।
उत्तराखंड में सबसे अधिक पर्यटक बद्रीनाथ के दर्शन के लिए पहुंचते हैं। बद्रीनाथ धाम में इतनी जगह नहीं है कि वहां पहुंचने वाले सभी यात्रियों के रुकने की समुचित व्यवस्था हो सके। लिहाजा बड़ी संख्या में पर्यटक जोशीमठ में रुकते हैं। चूंकि जोशीमठ और बद्रीनाथ धाम की दूरी बहुत अधिक नहीं है लिहाजा पर्यटकों के लिए भी सुविधाजनक होता है।
पर्यटकों की इसी संख्या को संभालने के लिए पिछले कुछ सालों में जोशीमठ होटलों का नगर बनता गया। हाईवे के किनारे होटलों की लंबी कतारें बन गईं। इनमें से कुछ होटल नियम विरुद्ध निश्चित तलों की संख्या से भी ऊंचे बना दिए गए। ये सब कुछ स्थानीय प्रशासनिक अधिकारियों की लापरवाही और राजनीतिक साठगांठ से होता रहा। इसके साथ ही जोशीमठ में अव्यवस्थित रूप से आबादी भी बढ़ती गई। नई आबादी ने रहने के लिए पारंपरिक शैली की जगह कंक्रीट के घर बनाने बेहतर समझा। जोशीमठ की भूमि पर बोझ धीरे धीरे बढ़ता गया और हालात अब इस स्थिती में हैं।
एनटीपीसी की टनल और मारवाड़ी बाईपास भी है वजह!
हालांकि प्रशासनिक अधिकारी इसे खुले तौर पर नहीं मानते हैं लेकिन स्थानीय लोग खुले तौर पर जोशीमठ में आई आपदा के लिए NTPC को जिम्मेदार बताते हैं। दरअसल NTPC जोशीमठ के पास 520 मेगावाट की बिजली परियोजना बना रहा है। स्थानीय लोग बताते हैं कि इस परियोजना की टनल जोशीमठ के नीचे से जा रही है। इस टनल की वजह से पूरा जोशीमठ धंसने लगा है।
वहीं स्थानीय लोगों की नाराजगी चार धाम ऑल वेदर रोड के अंतर्गत बनाए जा रहे मारवाड़ी हेलंग बाईपास मार्ग को लेकर भी है। दरअसल ये बाईपास जोशीमठ के निचले हिस्से से होता हुआ बनाया जा रहा है। इसके लिए बड़े पैमाने पर जेसीबी और अन्य मशीनों से पहाड़ को काटा गया। लोग मानते हैं कि जिस पहाड़ को काटा गया वो वही पहाड़ है जिसने जोशीमठ का भार उठा रखा है। सड़क निर्माण के चलते ये पहाड़ प्रभावित हुआ और आपदा आई।
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